Monday, November 7, 2011

नाई की दुकान



इतने सुबह तो हम कभी नाई की दुकान में नहीं आये थे, लेकिन कल बातो बातो में जो वादा कर बैठे कि तुम्हारी दुकान पर दिन बैठेंगे और अपने अनुभवों पर कुछ लिखेंगे| अब वादा किया तो आना तो पड़ेगा ही कम से कम अपने अनुभव का नाम तो सोच ही लिया था हमने "नाई की दुकान|"
अपने वादे के अनुसार जब वहाँ पहुंचे बल्लू खुश तो ऐसा हुआ जैसे पुरे दिन बैठ कर हमारे ही बाल काटेगा और पुरे गाँव के पैसे लेगा| खैर उचित आव भगत और सत्कार के बाद उसने कोन्टे में बिठा दिया| हमने भी एक-दो कोरे कागज और पेन निकाल लिए| ताकि उसे भी लगे हम सच में कुछ लिखेंगे| अब लिखने लायक कुछ मिलना भी तो चाहिए ना| 

वो कोना जहाँ अक्सर लोगो के बाल पड़े रहते थे, सुबह सुबह बड़ा साफ़ लग रहा था| बल्लू ने शायद हमारे आने के कारण इसे ज्यादा साफ़ किया होगा या फिर रोज ही करता होगा| उसके दुकान पर दो आईने और दो कुर्सिया थी, आज तक समझ में नहीं आया जब वो अकेले बाल काटता है तो दो आईने और दो कुर्सियों की क्या जरुरत? लेकिन आज जब खाली बैठे थे तो हमने ट्राय किया तो पता चला दूसरी वाली ज्यादा आराम दायक है| चलो कुछ तो मिला अगली बार इसमें बैठ कर बाल कटवाना निश्चित होगया| दो आइनों की बीच में फिरंगी लड़कियों के फोटो वाले बड़े बड़े पावडर के डब्बे, एक सस्ती शेविंग क्रीम, एक महँगी दिखने वाली शेविंग क्रीम, एक फिटकरी का टुकड़ा, पांच-छै कंघीया, पांच-छै कैचियां, दो उस्तरे पड़े हुए थे| आईने के ठीक ऊपर एक रेडियो था जिस पर वो अपने पसंद के स्टेशन लगाया करता है| और दीवार के उपरी सिरे पर नब्बे के दशक के हीरो के पोस्टर्स| ये सभी हीरो अब छोटे बाल रखने लगे है लेकिन आज भी इनके लम्बे बालो वाले पोस्टर्स की ही मांग है या फिर बल्लू के पास पैसे ही नहीं नए खरीदने के क्या पता| इन पोस्टर्स से जरा दूर अजीब अजीब से हेयर स्टाइल वाले कुछ लड़कों की फोटो लगी हुई थी, उस पर बड़े बड़े अक्षरों में बॉम्बे के किसी बड़े सेलून का नाम लिखा था| अगर कभी मुंबई जाना हुआ तो बाम्बे के इस सेलून जरुर जायेंगे| दीवारों का मुयायना अब कोने तक पहुँच गया था और वहा भगवान् की फोटो थी, छोटी सी| फोटो के नीचे एक गुंडी, गुंडी के पास ही एक घड़ा उल्टा रखा हुआ था, शायद ये वही घड़ा था जिससे गर्मी में बल्लू ने हमे पानी निकल के पिलाया था| और उसके पास ही एक बाल्टी, अब वो गुंडी से पानी बाल्टी में डालता था या बाल्टी से गुंडी में, आज तक कभी सोचा ही नहीं, लेकिन आज देख कर रहेंगे न जाने यह हम लोगो को क्या पिलाता है| लेकिन बल्लू ने पहले गुंडी धोयी फिर उसमे पानी लाके बाल्टी में डाला और फिर गुंडी में पानी लाकर रख दिया| अब हमे पता चल गया की हम जो पानी पीते थे वो सुरक्षित था| 

बल्लू ने छोटी से फोटो की छोटी सी पूजा भी की और अगरबत्ती को पुरे दुकान में घुमा कर एक आईने के बाजु में खोंच दिया| एक पल तो हमे लगा कि जैसे हमारी भी पूजा कर लेगा| कुछ देर तक कोई आया ही नहीं, हमारे पूछे पर उसने बताया की थोड़े देर में वहाँ देश का भविष्य आएगा| थोड़े देर बाद एक भविष्य आया, रोते हुए, जैसे बल्लू उसके बाल नहीं उसके कान काट लेगा| बल्लू ने एक पटिया निकाली कुर्सी के हंडल पर रखी जिस पर बच्चो को बैठा कर वो बाल काटता था, उसने एक उस्तरे को निकल कर बच्चे को दिखाया और कहा "इससे बच्चो के कान काटे जाते है और कैंची दिखा कर कहा इससे बाल" फिर उसने दोनों उस्तुरे उठा कर कुर्सी से दूर रख दिए और बच्चे को पटिया पर बैठा दिया| बच्चा अभी भी रो रहा था और दबी आँखों से देख रहा था कि बल्लू उस्तरा न उठा ले| बल्लू ने जैसे बालो को गिला करने वाली पिचकारी से उस पर पानी डालना शुरू किया, वो हसने लगा, लेकिन उसके बाद जैसे ही उसने बाल काटने शुरू किये फिर से रोना शुरू| अब तक वहाँ देश के दो-तीन भविष्य अपने अपने पिताजी दादाजी के साथ आगये थे| जिन्होंने अपने अपने बच्चो को दुकान के अन्दर बैठाया और खुद बाहर जाकर इधर उधर की बाते करने लगे| थोड़े बड़े होने पर इन बच्चो को पता चलेगा कि बाल मृत कोशिकाएं होती है जिनके काटने पर दर्द नहीं होता| लेकिन इस उम्र में शायद होता हो, आखिर बचपने में बाल कटवाने पर सभी रोते है| कुछ देर तक इन बच्चो का संगीत समारोह चलता रहा, किसी ने राग भैरवी सुनाई तो किसी ने ठुमरी|

हमारे तो कान पक गये थे, पता नहीं बल्लू रोज कैसे इन्हें झेलता होगा, अब करीब नौ बज गये थे, अब गाव के पढ़े लिखो की पारी थी, जैसे शिक्षक, पटवारी, पंच, सरपंच और ऐसे लोग जो बाल कम कटवा रहे थे गाँव की खबर ज्यादा ले रहे थे| किसने क्या कहा, किसने क्या नहीं कहा और क्यों कुछ हुआ तो क्यों कुछ नहीं हुआ, आज वहाँ गाँव की सारी राजनीति, कूटनीति, और भेदनीति सारी ही समझ में आगयी| इन लोगो से आज अपने ही गाँव की एक अलग तस्वीर देखने को मिल रही थी| खैर सुबह जल्दी उठने के कारण हमे भूख भी जल्दी लग गयी थी तो हमने बल्लू से थोड़े देर बाद आने का वादा कर वहाँ से चल दिए| अब तक कुछ खास मिला नहीं था लिखने के लिए अब वापस आकर भी क्या मिल जाता लेकिन वादा तो वादा होता है तो हम तीन बजे के आसपास फिर आगये| 
वापस आकर देखा तो देश का भूतकाल वहा जमावड़ा लगा कर बैठा था, गाँव के आधुनिकीकरण ने उनसे बरगद के निचे का चबूतरा छीन लिया था| खैर हमारी जगह अभी बल्लू ने बचा कर रखी थी| वो अभी भी बाल और दाढ़ी बनाने में लगा हुआ था| जिनके बाल हो उनके बाल काटना तो ठीक है लेकिन जिनके सर पर ही थोड़े बहुत बचे थे पता नहीं उनमे से बेचारा कितने काट पाता होगा| लेकिन हर बार हर बुड्ढा अपने आप को आईने में ऐसे देखता जैसे अभी अभी जवान हुआ है, एक अजीब सी चमक होती थी उनके नजरो पर, और फिर पीछे से कोई कुछ बोलता और सब हँस देते| शायद ये सब अपनी जवानी में रंगीन मिजाज़ के रहे हो, या फिर बुढ़ापे के अकेलेपन ने उनकी आधी अधूरी यादो को रंगीन बना दिया था| वो सभी करीब पांच तक बैठे रहे फिर एक एक करके निकल गये|  

अब दुकान में सबसे भयानक चीज़ आयी| हमारे देश का बस होने वाला वर्तमान, हमारे किशोर, युवा और कुछ अति युवा जो अभी भी नालायक ही थे| इनमे से कोई भी बाल कटवाने नहीं आया था| लेकिन बल्लू ने बताया इन्हें अगर बाल कटवाना भी होतो वो उन्हें शाम को ही आने को कहता है जिससे उनके लायक समय हो उसके पास| उनके लायक समय सुनने में अजीब लगता है लेकिन बल्लू ने बताया की पहले तो दस मिनट तक ये बालो को सहलाते है और अपने आप को समझाते है कि अभी काटने लायक नहीं हुए, बहुत से किशोर दस मिनट के बाद अपना विचार बदल लेते है और बातों में लग जाते है| जो बच जाते है वो अगले दस मिनट तक बल्लू को समझाते है कि कैसे बाल काटना है, और कुछ बल्लू को धमकाते भी कि अगर गलत बाल काटे तो अच्छा नहीं होगा| आखिर उनके बाल किसी सलमन शरुक से कम थोड़े ही है| सभी हमारे गाँव के कोई न कोई हीरो तो थे ही| बल्लू ने बताया शाम के वक़्त अक्सर वो खाली ही बैठा ही रहता है| कभी कभी कोई और आ जाता है तो ठीक है नहीं तो इन्ही लड़कों के हंसी मजाक से उसका समय निकल जाता है| कभी ये हंसी मजाक छोटा मोटा होता है तो कभी ऐसा कि उसे भी शर्म आजाये लेकिन बेचारा गरीब आदमी किसी को क्या बोले| गाँव की सारी बाते एक कान से सुनता है, दुसरे से निकलता है या नहीं वो ही जाने| 

अब दुकान बंद करने का वक़्त आगया था| बल्लू ने अपनी दिनभर की आमदनी गिनी और उसमे कुछ निकाल कर दुसरे डब्बे में रख दिए बाकी जेब में| पूछने पर उसने बताया कि वो हर दिन की आमदनी का दसवां हिस्सा दान कर देता है| यह जवाब मिलते ही जैसे पुरे दिन का अनुभव बदल गया| वो नाई की दुकान अब इतनी साधारण नहीं लग रही थी| वो दुकान बंद कर चला गया| जाते वक़्त कह गया कुछ लिख लो तो बताना| अब हम उसे कैसे बताये कि हमने कुछ लिखने का सोचा ही नहीं था, वो तो बस एक नाई था जिसे शायद हमने कभी महत्व ही नहीं दिया| कभी ध्यान ही नहीं दिया कि कैसे अलग अलग उम्र और अलग अलग तरह के लोग वहाँ आते है, फिर भी वह मुस्कुरा कर चुपचाप अपना काम करता रहता है| सबसे बड़ी बात बल्लू वो काम करता है जिसकी बहुत से बड़े लोग सिर्फ बाते करते है "दान"| हमने अपने मन भी बल्लू से एक और वादा किया कि उसके बारे में जरुर लिखेंगे और वादा किया है तो लिखना तो पड़ेगा ही| 

Saturday, November 5, 2011

चुप्पी



ओमी और राघव नदी के किनारे भीगे हुए बैठे थे| बहुत देर से किसी ने कुछ कहा नहीं था, आखिर कार ओमी ने कहा "चले?" राघव अभी भी अनंत में देख रहा था, शायद उसने ओमी की बात सुनी नहीं या सुनकर भी अनसुनी कर दी| ओमी ने फिर से पूछा "चले, इसी तरह बैठे रहे तो, ठण्ड लग जाएगी" जिस इन्सान ने अभी अभी आत्महत्या का प्रयास किया हो, उसे ठण्ड लगने का बहाना देना शायद कोई महत्व नहीं रखता| लेकिन राघव शायद मरना भी नहीं चाहता था, इसीलिए तो वापस पानी में नहीं कूदा था| ओमी को भी समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे और क्या न कहे, अब आत्महत्या के प्रयास करने वालो से इन्सान कहे भी तो क्या, पूछने से बताएगा? और ज्यादा कुरुदने पर कही फिर से कुछ उल्टा सीधा न कर ले| ओमी भी बैठा हुआ था, और सोच रहा था कि कैसे वापस राघव को लेकर जाये|

यु तो लगभग हर फिल्मी और कहानी वाले गाँव के पास नदी होती है, तो ओमी के गाँव के पास भी नदी थी| लेकिन ओमी नदी किनारे बैठा सोच रहा था कि काश ये नदी नहीं होती, लेकिन नदी के होने न होने से क्या फर्क पड़ता है| नदी न होती तो नाला होता, तालाब होता या कोई छोटा बड़ा कुआ होता| गाँव की पानी की जरुरत के लिए ऐसे साधन तो होते ही है लेकिन इनके और भी उपयोग है या कहिये दुरपयोग| और लोग तो घर के पंखो से भी लटक जाते हैं उनका क्या| ओमी और राघव अभी वहा मूर्तियों की तरह बैठे थे, ओमी ने इस बार राघव पर जोर दे कर कहा "अब चलो भी, मुझे ठण्ड लग रही है, शायद कही तबियत ख़राब न होजये" राघव ने इस बार उत्तर दिया "हमने तो नहीं कहा था कि पानी में कूदो, चैन से मरने दिया होता तो हम भी मर जाते और तुम्हे ठण्ड भी नहीं लगती|" ओमी का मन तो हुआ कि कहे वापस कूद जाओ और इस बार हम बचायेंगे भी नहीं| लेकिन उसे पता था कि राघव अभी अपने आपे में नहीं है, न जाने किन विचारो ने उसे कैद कर रखा है तभी तो नदी में कूदा था| 


हमारा मन भी अजीब है कभी सोचते सोचते हम दूर निकल जाते हैं तो कभी उन्ही ख्यालो में बंध कर रह जाते हैं, और ऐसे विचार हमारे मस्तिष्क में सड़न पैदा करते हैं जो मनुष्य को गलत फैसलों के ओर ले जाते हैं| नदी के किनारे चलने वाली ठंडी हवा भी हमेशा सुहानी नहीं लगती| कभी कभी हमारे मन में चल रही उथापोह उन्हें चुभने वाली हवा बना देती है| नदी का कल कल करता पानी भी सुन्दर नहीं लगता ऐसा लगता है जैसे पानी की हर एक तरंग में एक उलझन है, एक सवाल है, एक ताना है, अपनी जिंदगी के मायने तलाशने को असफल मन नदी के किनारे बैठ कर उसे निहार नहीं पाता|  वापस जाने का साहस भी नहीं होता, क्यूंकि वापस जाने के रास्ते पर जैसे धिक्कारने वाली हज़ारों आवाज़े गूंजती रहती हैं| कभी कभी ये भाव किसी घटना से टूट जाते है और कभी इतना साहस आ जाता है कि वापस चले जाए| लेकिन हर व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होता, कभी कोई क्षणिक उन्माद उसे अनंत में समां जाने की और धकेल देता है, इस उन्माद को हम आत्महत्या भी कहते है, वो चाहे पानी के सवाल हो या अपने कमरे के अकेलेपन में गूंजते सवाल, क्षणिक उन्माद ही तो होता है, मृत्यु को जीने का उन्माद, अपनी हर समस्या को हल कर लेने का उन्माद जो एक ऐसे दरवाजे की ओर ले कर जाता है जिसके दूसरी ओर क्या है किसी को नहीं पता|

"वापस जाकर क्या करूँगा?" राघव ने कुछ देर बाद पूछा| इससे पहले कि ओमी कुछ कह पता राघव ने खुद ही कहा "तुम्हे लग रहा होगा कि हम बेवकूफ है जीवन का मोल नहीं जानते, लेकिन ऐसे जीवन का क्या मोल जिसमे सिर्फ दुःख ही दुःख हो| पिछले साल कर्जा इतना बढ गया था कि समझ में नहीं आया क्या करे? लगा शायद ज़िन्दगी देने से समस्या हल हो जाये, लेकिन यह गलत होगा, तो फिर सही क्या होगा? आखिर करे भी तो क्या करे, कीटनाशक की शीशी को हाथ में लेके इसी उधेड़बुन में लगे थे कि तुम्हारी भौजी ने हमे देख लिया, उसे लगा कि हम आत्महत्या कर रहे है और फिर ये बात सारे गाँव में फैल गयी| तुम्हारी भौजी अब हमसे सहमी रहने लगी, ज्यादा बाते नहीं करती थी उसे लगता कि अगर कुछ ज्यादा बोल दिया तो फिर से मैं ऐसा कदम उठा लूँगा| कुछ गाँव वाले भी मुझसे बात करने में कतराने लगे तो कुछ मजाक उड़ाने लगे| बस ऐसा समझ लो कि एक भयानक चुप्पी ने हम घेर रखा था| ऐसी चुप्पी जो लाख चाहने पर भी हमे जीने नहीं देती, बहुत कोशिश की वापस जीवन से जुड़ने की लेकिन चुप्पी की इस दीवार ने जुड़ने ही नहीं दिया, और आखिर में हार कर आज वो कदम उठा लिया जिसके बारे में सिर्फ सोचा था" और अपनी लम्बी चुप्पी के बाद, इस तरह अपने मन की बाते बोलने के बाद, राघव रोने लगा| 

ओमी को न सिर्फ राघव पर तरस आ रहा था बल्कि हमारे समाज पर भी आ रहा था| जो आत्महत्या के बारे में बड़ी बड़ी बाते तो करता हैं लेकिन जब इससे निपटने का मौका आता है तब अक्सर पीछे हट जाता हैं| क्या राघव के जीवन में पहले से ही समस्या थी और अब हमारे बर्ताव ने उसके जीवन और भी कठिन बना दिया था| आखिर क्यों सिर्फ एक गलती, और राघव ने तो वो गलती की भी नहीं थी, और हम उस इन्सान से दुरी बना लेते हैं| हमे बदलना होगा, बात करनी होगी, चुप्पी तोड़नी होगी उन लोगो के लिए जिन्होंने ऐसी गलती की हैं, ऐसे लोगो के जीवन के लिए| कम से कम ओमी ने तो यह निश्चित कर लिया था कि वो ऐसी चुप्पी तोड़ेगा|

राघव के कंधे पर हाथ रख कर ओमी ने उससे कहा "इस घटना के बारे न तुम किसी को बताना और न ही हम किसी को बताएँगे, ये तो नहीं पता कि आज के बाद आपकी ज़िन्दगी में समस्या कम होगी या नहीं लेकिन कभी ऐसा रास्ता मत चुनना, और कल से रोज सुबह हमारे घर आ जाना, अम्मा की हाथ की चाय भी मिलेगी और हम आपसे बाते भी करेंगे|" ओमी और राघव दोनों अब गाँव की तरफ निकल चले या यूँ कहे ओमी ज़िन्दगी के नए सबक के साथ और राघव नयी ज़िन्दगी के साथ अब गाँव की तरफ निकल चले|

  
यह कहानी JD Schramm: Break the silence for suicide survivors से प्रेरित है| 

Saturday, September 10, 2011

वादो का हिसाब किताब



पुराने कपड़ो में आज बड़के भैय्या को वो पुरानी शर्ट नज़र आयी जो कभी ओमी ने खरीदवायी थी | जब बड़के भैय्या कॉलेज में थे तब एक बार बड़े जोश से यह सिद्ध कर रहे थे कि छोटे शहरो में अच्छे कपडे नहीं मिलते और हर दुकान पर जाकर उनका मुयायना कर रहे थे, तब यह शर्ट उनको पसंद आगयी | अब अगर खरीदी करने निकले होते तो साथ में पैसे भी होते | अब जिस ओमी से शर्त लगायी थी उससे शर्त तो हारनी ही थी लेकिन यह शर्ट भी खरीदनी थी | खैर ओमी के पास पैसे थे उसने वो शर्ट खरीदवा दी | उस वक़्त बड़के भैय्या खुश तो बहुत हुए और ओमी से न जाने कितने बड़े बड़े वादे किये जैसे नौकरी लगने के बाद वो उसके लिए शहर से विदेशी जींस लेकर आयेंगे | 

आज नौकरी लगे तीन साल हो गये थे, बड़के भैय्या की सैलरी दो बार बढ़ चुकी हैं, और अमूमन उनके हर कपडे यहाँ तक कि चड्डी बनियान भी विदेशी कंपनी के है | लेकिन ओमी की विदेशी जींस अभी भी एक वादा है | एक ऐसा वादा जिसे ओमी और बड़के भैय्या दोनों भूल चुके थे |

इन्सान अक्सर अपनी जीवन में वादे वाले वादे करता हैं, जैसे बड़ा होने पर माँ को घुमाने का वादा, पिताजी को नयी घडी लेने का वादा, छोटो को बड़े बड़े तोहफों का वादा | लेकिन ऐसे वादे सिर्फ वादे ही रह जाते हैं, क्यूंकि जब इन्सान इस लायक होता है कि इन वादों को पूरा करे उसके पास वक़्त कहाँ होता है | अब बड़के को ही लेलो, नौकरी शुरू होने के बाद ओमी से मिला भी नहीं था | लेकिन इस शर्ट ने उसे कुछ याद दिला दिया था | उसने कुछ सोचा और थोड़ी देर बाद झट से अपने काम का ब्यौरा देखा और एक महीने बाद की टिकट करवा ली, ओमी के गॉव जाने की |

"फूल गए हो भैय्या, अब तो आपके गाल भी निकल आये हैं, लगता है खूब मौज हो रही है बैंगलोर में " बड़के को देखते ही ओमी ने कहा | फिर दो भाइयो के बीच होने वाला हंसी मजाक, इधर उधर की बाते, लेकिन ओमी को पता था कि बड़के भैय्या पक्का अपने किसी काम से ही आये होंगे, वरना कौन आता है गॉव अपने नाते रिश्तेदारों से मिलने |

चाय नाश्ते के बाद ओमी से रहा नहीं गया उसने पूछ ही लिया कि सच सच बताओ कि क्यों आये हो ? बड़के भैया दो मिनट रुको कह कर अन्दर गए और अपने सूटकेस से एक पालीथीन लेकर आये और ओमी को थमा दी | जब ओमी ने पालीथीन खोली तो उसमे एक जींस थी, देख कर बड़ी महंगी लग रही थी | "तुम्हे अब तक याद है ?" ये सवाल था या अपनी खुश का इज़हार या फिर स्नेह ये तो किसी को नहीं पता लेकिन ओमी खुश बहुत हुआ | उन दोनों के रिश्तो में बड़े होने के साथ जो संजीदापन आगया था अब मिट गया था दोनों ही बचपन वाले रिश्ते में चले गये | और एक बाद एक न जाने कितनी यादे अपने आप बाहर आने लगी ऐसा लग रहा था जैसे दोनों किसी टाइम मशीन में बैठ कर अपने भूतकाल में घूम रहे हो |
बड़के ने ओमी से कहा "एक दिन अचानक उस शर्ट को देख कर वो दिन याद आगया जब मैंने तुमसे ये वादा किया था, पहले सोचा कि खरीद कर तुम्हे भेजवा दू लेकिन तब ख्याल आया कि इससे मैं शर्ट के बदले जींस तो दे दूंगा लेकिन तुमने मुझे जो ख़ुशी दी थी उस ख़ुशी के बदले ख़ुशी नहीं दे पाउँगा, जहाँ वादा निभाने में तीन साल लगाये वही एक और महिना सही लेकिन जींस तो खुद आकर दूंगा मैंने निश्चय कर लिया था "

इन्सान अक्सर पैसे का हिसाब तो रखता है लेकिन वादों, अहसासों और खुशियों का नहीं | अगर हम यह हिसाब भी रखना शुरू कर दे तो पाएंगे की हम सभी कितने कर्जो में हैं | छोटी छोटी मदद जिन्होंने ज़िन्दगी आसान बना दी थी, या नामसझ गलतियाँ जिन्होंने ज़िन्दगी के बड़े बड़े सबक सिखाये और न जाने कितनी ऐसी बाते, जिन्हें हम अपने भविष्य का वादा बना कर भूल जाते है | उस वक़्त तो ऐसा लगता है कि बस ये हो जाने दो फिर देखना वो कर दूंगा ये कर दूंगा | लेकिन करता कोई नहीं क्यूंकि सभी मशरूफ हो जाते हैं ज़िन्दगी में |  

"अरे बहुत खूब भैय्या अब तो सबके हिसाब चूका रहे हो, तो मास्टर जी का हिसाब भी चूका दो उस वक़्त तो क्या शान से कहा था तुमने कि बड़ा होने के बाद सब कर दोगे" ओमी ने यह बात हँसते हुए ही कही थी लेकिन बड़के भैय्या को जैसे एक और क़र्ज़ की वसूली का नोटिस मिल गया था | उसे याद आया कि कैसे उसने ये नासमझी की थी |

ओमी और बड़के भैय्या दोनों उस वक़्त स्कुल में थे, और उन्हें आम लेने खेत जाना था | उन्होंने पैदल जाने के जगह सायकल से जाने की सोची लेकिन सायकल मिलती कहाँ से? तभी उन्होंने ध्यान दिया की ओमी के पिताजी से मिलने पास के गॉव के मास्टरजी आये है | ये बेचारे भी अभी अभी ही नौकरी में लगे थे, और पास के गॉव में ही रहते थे, अब उन्होंने सोचा कि आये है तो गॉव के प्रमुख लोगो से मिल लेना चाहिए | घर आने पर उन्हें पता  चला कि ओमी के पिताजी घर पर नहीं है तभी मौके का फायदा उठा कर बड़के भैया ने मास्टरजी से कहा "मौसाजी खेत गए है हम उन्हें बुला के ला लेते है, लेकिन अगर आप अपनी सायकल दे दोगे तो हम जल्दी उन्हें बुला लेंगे" सायकल देने की इच्छा तो नहीं थी, लेकिन बड़के के दो-तीन बार कहने पर उन्होंने इस सलाह के साथ कि देख के चलाना नयी है, सायकल दे दी |

जल्द ही ओमी के पिताजी आगये | उन्हें देख कर मास्टरजी बोले बड़े जल्दी आगये खेतो से ! ओमी के पिताजी को हंसी आ गयी अरे कहाँ के खेत भाई यही पड़ोस में बैठे थे, पता होता तुम आये हो तो वही बुलवा लेते | इसके बाद मास्टरजी ने उन्हें पूरी बात बतायी | ओमी के झट से एक नौकर को उन दोनों को देखने खेतो की और रवाना कर दिया | मास्टरजी को शरारत तो समझ में आ चुकी थी और अपनी नयी सायकल की चिंता उन्हें सता रही थी |    

अभी एक महीने भी नहीं हुए थे बेचारे ने बड़े अरमान से ली थी, अपनी पगार में से मुश्किल से पैसे बचा कर  | ओमी को आता देख मास्टरजी के जान में जान आयी लेकिन यह बस कुछ पल के लिए थी | "क्यों रे ओमी मास्टरजी की सायकल कहाँ है ?" ओमी को पता था यह सवाल जल्द ही उससे पूछा जायेगा, उसने ईमानदारी से बता दिया कि सायकल नहीं मिल रही | उसने और बड़के ने सायकल खेतो के बाहर ही खड़ी की थी लेकिन जब वो लोग आम लेकर वापस आये तो वो वहाँ नहीं थी | ओमी पूरी बात ख़त्म करता उससे पहले ही मास्टरजी ने पूछा तुम्हारा वो भाई कहाँ है? ओमी ने चुप कर खड़ा रहा | इस बार ओमी के पिताजी ने उस डरा कर पूछा तो ओमी ने बताया कि भैय्या खेतो में ही है उन्हें डर है कि वापस घर आये तो मार पड़ेगी | अब एक तरफ मास्टरजी को सायकल का दुःख था वही दूसरी तरफ ओमी के पिताजी को बच्चे की चिंता | 

हालाँकि मास्टरजी को जब ओमी के पिता जी ने कहा कि वो सायकल लिवा देंगे तब तो लोकलाज के कारण उन्होंने मना कर दिया लेकिन मन में तो यही था कि मुझे मेरी सायकल दिलवा दो बस |  लेकिन उन्होंने कहाँ "अब जो हुआ सो हुआ बच्चे नादान है, चलिए मैं चलता हूँ अब तो पैदल जाना पड़ेगा " खैर ओमी के पिताजी ने उनके जाने का इन्तेजाम करवा दिया | लेकिन इतने अरमानो से ली हुई सायकल खोने का दुःख उनके चेहरे में न जाने कितनो महीनो तक रहा होगा | भेजे गये नौकर के साथ जब वो वापस आया तब मास्टरजी जा चुके थे, लेकिन फिर भी उसे और ओमी को बहुत डांट डपट पड़ी | और वो दोनों मन ही मन उस चोर को कोस रहे थे जिसने यह काम किया था | रात में सोते समय बड़के ने ओमी से कहाँ था देखना बड़ा होने के बाद सबसे पहले इस मास्टर को सायकल खरीद कर दूंगा | अब सायकल खो गयी तो इसमें हमारी क्या गलती, हमने तो पास में भी खड़ी की थी, अब हमे क्या पता था कि कोई चोर वहाँ तक लगाये बैठा है |

लेकिन जैसे जैसे वक्त बिता वैसे वैसे सारी बाते भी वक्त के साथ खो गयी | अपनी जिंदगी में मशरूफ बडके भैय्या के पास अब अपने भाई ओमी के लिए वक्त नहीं था तो अब ऐसे बातों को कहाँ याद रखता लेकिन अब सब साफ़ साफ़ याद आ गया था |  ओमी से उसे पता चला कि मास्टरजी अभी भी पड़ोस वाले गॉव में ही है उसने मास्टरजी से भी मिलने की बात ओमी से कहीं | "अब क्या उन्हें सायकल खरीद कर दोगे?" ओमी ने मजाक उड़ाते हुए कहा | इस पर बडके भैय्या कहा नहीं बस उनसे बात करनी है, अब उन्हें सायकल की जरुरत भी कहाँ होगी?

अगले दिन मास्टरजी के घर, ओमी और बड़के भैय्या उनसे मिलने गए | बड़के भैय्या ने नमस्ते किया और बोले "आपने शायद मुझे पहचाना नहीं मैं वहीँ शैतान बच्चा हूँ जिसने आपसे झूट बोल कर आपकी सायकल ली थी और खो दी थी, मैं आज आपसे उस बात के लिए माफ़ी मांगने आया हूँ .........."  

Sunday, March 13, 2011

भविष्यवाणी

यह कहानी ब्लोग्शवर एवं अनुभूति की प्रतियोगिता के लिए लिखी गयी है

"यह है गुरु का पर्वत और यह सूर्य और यह शनि और यह रहा आपका बुध ...." मनोज के हाथ को पकड़ कर वरुण उसे हस्तरेखा के कुछ बाते समझा रहा था| सुनने में तो यह हमारे अंतरिक्ष का वर्णन लग रहा था सारे ग्रह उपग्रह और ना जाने क्या क्या| वरुण कोई बहुत बड़ा ज्ञाता नहीं था लेकिन चाय के साथ कुछ ना कुछ तो बात करनी ही थी| ओमी वरुण के बाते सुन सुन अपने हाथ में भी उन पर्वतो को पहचानने की कोशिश कर रहा था| वरुण ने जब ये देखा तो ओमी को चिड़ाता हुआ बोला "ओमी क्या देख रहे हो आओ हम तुम्हारा हाथ देख लेते है", ओमी ने वरुण को कहा कि उसे इन सब पर भरोसा नहीं है| वैसे भरोसा करने या ना करने के लिए उस चीज़ के बारे में पता होना चाहिए, लेकिन ओमी पढ़ा लिखा था और पढ़े लिखे लोग अगर ये कहे कि उन्हें इन सब पर भरोसा है तो उनकी शान के खिलाफ हो जाता है| मनोज ओमी और वरुण कॉलेज के साथी थे, कहने को तो वरुण भी उतना ही पढ़ा लिखा था लेकिन उसे ज्योतिष के बारे में जाने की इच्छा थी तो उसने कुछ सीखने की कोशिश की, लेकिन बेचारा कभी पर्वतो से आगे सीख ही नहीं पाया| मनोज को हमेशा अपना भविष्य जानने की उत्सुकता रहती थी चाहे वो अख़बार में छपने वाले घिसे पिटे राशिफल हो या सड़क के किनारे का तोता| मनोज ने वरुण से कहा "ये सब आधी अधुरी बाते छोड़ो कुछ साफ़ साफ़ बताओ जैसे नौकरी कब मिलेगी, शादी कब होगी, बीवी कैसी होगी .. " मनोज को बीच में टोकते हुए ओमी बोला "तेरी बीवी कैसी होगी ये बताने के लिए ज्योतिष नहीं चाहिए ये तो तेरे बाप से पूछना पड़ेगा की तुझे कहा बांधेगा और कितने में बांधेगा" सब ये सुनते ही हँसने लगे| मनोज को भविष्य जानने की इतनी उत्सुकता थी कि वो वरुण का पीछा ही नहीं छोड़ रहा था| वरुण को इतना ज्योतिष तो आता भी नहीं था, उसे अब निकलना था, और भी काम थे, आखिर में वरुण ने मनोज को एक जाने माने ज्योतिषी का पता दे दिया और उन तक पहुँचने की पुरी जानकारी| वरुण तो निकल भागा लेकिन ओमी के पास भागने का कोई चारा ही नहीं था| उसे मनोज ने अपने साथ चलने को राज़ी कर लिया| अब कल सुबह दोनों जाने वाले थे अपना भविष्य जानने| ओमी को भी लग रहा उसे भी शायद अपनी किताब का भविष्य पता चल जाये|
मनोज की सनक ने अगली सुबह दोनों को जल्दी उठा दिया| ओमी भी चाहता था की वहाँ जाके अपनी किताब के बारे में जाने लेकिन वो मनोज ऐसा दिखा रहा था जैसे वो बस उसके लिए जाने को तैयार हुआ है| ये मनुष्य का स्वभाव है, अपना काम होते हुए भी वो ये दिखाना नहीं भूलता कि उसे दुसरो की कितनी चिंता है| दोनों सायकल से शहर पहुंचे और सायकल एक परिचित के यहाँ रख कर बस स्टैंड| सुबह सुबह जब दोनों बस स्टैंड पहुंचे तो उन्हें यकीन नहीं हुआ कि ये वही भीड़ से भरी जगह जहा दिन में पाँव रखनी के लिए भी जगह नहीं मिलती| चाय के दुकानों पर दुध खौल रहा था, समोसे के मसाले तैयार किये जारहे थे, दिन भर दुत्कारे जाने वाले कुत्ते मजे से घूम रहे थे| ऐसा अक्सर होता है सुबह जल्दी उठने पर यकीन नहीं होता कि ये वही जगह है| दोनों इतने सुबह इसीलिए आये थे क्युकि उन्हें सिलापुर जाने की पहली बस पकड़नी ताकी वो लोग शाम तक वापस गाँव आ सके| बस में बैठने पर उन्हें जगह तो आसानी से मिल गयी| लेकिन ये जगह अगले आधे घंटे के लिए थी, धीरे धीरे बस में भीड़ लगने लगी थी, और दो लोगो कि जगह पर चार लोग बैठे थे| लोग और लोगो के सामानों से ठसाठस भरी बस में ओमी और मनोज को हो रही तकलीफ उनके चेहरों से साफ़ जाहिर हो रही थी| ओमी ने मनोज से कहा "अभी भी वक़्त है वापस चलते है इसी तरह तीन घंटे और उसके बाद दूसरी बस पता नहीं उसमे कितनी भीड़ होगी" मनोज ने इस बात कोई जवाब नहीं दिया| दुसरे शब्दों में उसका जवाब था चुप चाप बैठे रह|
तीन घंटो के बाद जब बस सिलापुर पहुंची तो ओमी और मनोज दोनों पस्त हो चुके थे| सुबह से कुछ खाया भी नहीं था| वहा पूछने पर पता चला कि कठिपुर जाने वाली बस थोड़े देर में आती होगी| और ये कठिपुर जाने वाली एक मात्र बस थी| दोनों ने सोचा कि बस आते तक कुछ खाले| ओमी जैसे ही समोसे लेकर आया, मनोज ने उसे अख़बार दिखा कर बोला "देख इसमें लिखा है मेरे आज सारे कार्य सफल होंगे, तु चिंता ना कर आज सब अच्छा ही होगा" तभी उन्होंने देखा कि उनकी बस आगई| ओमी ने समोसे हाथ में पकड़ रखे थे और बस में चढ़ने लगा| भीडभाड में समोसे गिर गए और दोनों अब अगले दो घंटे तक भूखे ही रहने वाले थे| इस बार उन्हें बैठने कि जगह भी नहीं मिली थी| दोनों खड़े खड़े जारहे थे| ओमी को शांत देख कर मनोज ने उसे समझाया कि वो लोग कठिपुर में कुछ खा लेंगे और कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है| दोनों ने दो दो समोसे खोये थे, ये बलिदान बहुत बड़ा था| इसके बदले आज उन्हें कुछ बड़ी चीज़ तो मिलनी ही चाहिए थी|
कठिपुर पहुचने पर पहले दोनों ने बैठने के जगह खोजी और अपने पैरो को आराम दिया| वहा से ज्योतिष के घर पैदल जाना था| वरुण के बताने के हिसाब से आधे घंटे में दोनों पहुच जाते| लेकिन वरुण ने दोनों इस हालत के बारे में सोच कर आधे घंटे कहा था या बिना सोचे ये उन दोनों को नहीं पता था| ओमी कुछ कहता उससे पहले मनोज ने उसे चलने को कहा, और खाने के बात पर बोला "खाने के चक्कर में अगर लेट होगये तो वहा भीड़ बढ़ जाएगी" ओमी को भी ये बात सही लगी जहा इतना सब सहा वहा थोड़ी सी सहुलियत के लिए क्यों वक़्त बर्बाद करे और शाम तक वापस भी जाना था| इसीलिए मनोज और ओमी दोनों चाल पड़े| मनोज और ओमी दोनों लोगो से रास्ता पूछ पूछ कर जा रहे थे, सड़क पर हर खाने की चीज़ को देख कर रुकने का मान तो होता लेकिन दोनों पहुचने में देर नहीं करना चाहते थे| करीब एक घंटे के बाद उन्हें उस ज्योतिषी का घर दिख ही गया|
घर से थोड़ी दुर पहले ही मनोज ने ओमी से पुछा, तुम्हे क्या लगता है क्या सच में ये ज्योतिषी हमे हमारा भविष्य बता देगा? मनोज के इस सवाल पर ओमी को भी संदेह था| लेकिन वहा दिख रही लोगो की भीड़ और वरुण के बताने के हिसाब से ये तो तय था कि ये महाराज सच में बड़े ज्योतिष थे और भविष्य ठीक ठीक बता देने की प्रबल संभावना थी| उसने मनोज को यकीन दिलाया कि ये व्यक्ति जरुर उसे भविष्य बता देगा| लेकिन ये यकीन आते ही मनोज के चेहरे के भाव बदल गए और उसने ओमी से वापस चलने को कहा| ओमी को पहले कुछ समझ में नहीं आया उसने मनोज को समझाने की कोशिश की जब इतने दुर आये हो तो कुछ जान लेते है| लेकिन मनोज अड़ गया कि उसे वापस जाना है और वो भी बिना कारण बताये| मनोज के हड़बड़ाहट देख कर ओमी को लगा शायद मनोज डर गया है भविष्य में होने वाली किसी बुरी बात के पता लगने से| उसने मनोज को समझाया कि वो ज्योतिषी से केवल अच्छी चीज़े ही पूछेंगे उसे डरने कि जरुरत नहीं है| मनोज इस पर मुस्कुरा बैठा और उसने ओमी से कहा "ओमी मैं डर के वापस नहीं जारहा, भविष्य के अनिश्चितता ही मुझे हमेशा अपना भविष्य जानने के लिए उकसाते रहती है, ये अनिश्चितता ही हमे कुछ करने के लिए प्रेरित भी करती है, और कही ना कही ये अनिश्चितता ही जीवन को कुछ मायने देती है अगर आज हमे अपना भविष्य पता चल गया तो इस अनिश्चितता का आनंद चला जायेगा, मैं इस आनंद को खोना नहीं चाहता और इसीलिए वापस जाना चाहता हु"

Sunday, January 23, 2011

वोट का किस्सा

"तुम हमारी मार्क शीट देखोगे और फिर सोचोगे और फिर वोट करोगे ...अगर ऐसा करते ना भैय्या, तो चरणलाल सरपंच नही बनता| तब एक मुर्गी और दारु लेके वोट दिया था अब एक समोसा और चाय लेके कर दो भैय्या" ओमी ने किशन से कहा| गाँव के लोगो को पता नहीं किस कीड़े ने काट लिया था हो उन्होंने गाँव में सबसे पड़े लिखे इन्सान की खोज शुरू करदी| गाँव में सबसे पढ़ा लिखा आदमी ओमी था, लेकिन और भी लोगो ने स्कुल पास किया था उन्हें लगा इस तरह से ओमी को सबसे पढ़ा लिखा कहना भारत के सविंधान के खिलाफ है| इस देश में बहुत सारी चीजे इसके उसके खिलाफ है लेकिन जब तक उनका विरोध करने से अपना मतलब नहीं होता, कोई विरोध नहीं करता| भारत में लोकतंत्र है इसीलिए सब वोटो से ही फैसला होना चाहिए| गाँव वालो ने वोटिंग करवाने की सोची, लोकतंत्र में वोट ही ये बताते है की कौन लायक और कौन नहीं|

ये बात सबको पता थी की ओमी ही सबसे पढ़ा लिखा है लेकिन सब वोट नहीं कर सकते थे| सबके अपने अपने कारण और अकारण के बहाने थे| किशन भी इनमे से एक था| किशन ने आज तक किसी भी छोटे, बड़े, अपने गाँव के या पड़ोस के गाँव के चुनाव में बिना सोचे समझे (बिना कीमत लिए ) वोट नहीं किया था| ये बात ओमी को भी पता थी इसीलिए उसने किशन को चाय नाश्ता करवाया और वोट हासिल करने की कोशिश की | लेकिन ओमी को किशन के सोचने समझाने की शक्ति पर पूरा यकीन था, इसीलिए उसे मालूम था इस चाय नाश्ते के बाद भी उसे शायद किशन का वोट नहीं मिले| किसी उसूल के मानने वाले, धर्म को जानने वाले और फोकट में प्रवचन देने वाले को ये बात अजीब लगेगी, जब ओमी ही सबसे पढ़ा लिखा है तो उसे इस तरह वोट लेने की क्या जरुरत| लेकिन जिस तरह गंगोत्री से समुद्र तक आते आते गंगा मैली होजाती है उसी तरह विचारो से कर्म तक आते आते उसमे भी जातिवाद, क्षेत्रवाद, व्यक्तिगत मामले और ऐसी ही कितनी गंदगी आजाती है| लोगो के मन को तो ज्ञान होता है कि क्या सही और गलत है लेकिन उनके कर्मो में केवल मतलब छुपा होता है| ओमी शायद ये चुनाव जितना भी ना चाहे लेकिन इस चुनाव के हारने के दूरगामी परिणामो को देख कर उसे जीतने की हर संभव कोशिश करनी ही थी|
"भैय्या बात तो तुम्हारी सही है तुम तो शहर के कॉलेज में भी पढ़े हो लेकिन भजन भैय्या हमारे जात के है, और अगर जात के बड़े बुढो ने कह दिया कि भजन को वोट करना है तो हम तो उन्हें ही वोट करेंगे, हमे गाँव में उन्ही के साथ रहना है, तुम ठहरे दूसरी जात के वोट लेके भूल जायोगे " हरिलाल ने ओमी से कहा| ओमी ने हरिलाल को समझाने की कोशिश की "अरे भजन तो लेके देके स्कूल पास हुआ है, वो भी हमारी नक़ल मारके और अब तुम कह रहे हो की उसे वोट करोगे, अरे भैय्या ये कोई लोकसभा, विधानसभा, इसकी सभा, उसकी सभा, मैडम की सभा, धर्म की सभा या गुंडों की सभा का चुनाव नहीं है| जिसको जीतने के बाद हमे कुछ मिल जायेगा, ये तो बस पढ़े लिखे व्यक्ति का चुनाव है, और हम है गाँव के सबसे पढ़े लिखे इंसान, चाहे तो हमारी मार्क शीट देखलो, इसमें तो हमे वोट कर सकते हो|" तर्क और कुतर्क की संभावना वहा होती है जहाँ कोई सुनने को तैयार हो| हरिलाल जैसा गरीब तबका अपने तबके अमीरों के हाथ में होता है| हर चुनाव से पहले इन्हें फरमान मिल जाता है कि क्या करना है और इन लोगो को वही करना होता है| हरिलाल जैसे लोग इस उम्मीद में जीते है कि एक दिन उनके जात के लोगो उनकी मदद करेंगे और इसी उम्मीद में जीवन निकल जाता है| ये जानते हुए भी कि ओमी ही सबसे पढ़ा लिखा है वो उसे वोट नहीं कर सकता था|
ओमी को लग रहा था कि उसे बस उसे शायद उसके घर वालो के ही वोट मिल जाये वही बहुत थे| लेकिन उसमे भी आशंका थी क्युकि ओमी के चाचा का बेटा मनोज भी इस चुनाव में था| मनोज जिसने कॉलेज में एडमिशन तो लिया था लेकिन कभी उसे ख़त्म नहीं किया, लेकिन उसका तर्क था जिस ज़माने में उसने एडमिशन लिया था वो जमाना अलग था, आजकल तो इतने स्कूल कॉलेज है कि कोई भी ऐरा गैर पढ़ सकता है| बात तो मनोज की भी सही थी, देश को आजादी तो १९४७ में मिल थी| आजतक कुछ नेता उसी के कारण चुने जाते है, कुछ परिवार में तो आने वाली नस्ले प्रधानमंत्री पद की दावेदार होती है| अब इतिहास को कोई ऐसे तो उपेक्षा नहीं कर सकता, और मनोज के पास पैसे भी ज्यादा थे लोगो को चाय नाश्ता करवाने के लिए| ओमी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ पहुंचा| "तुम्हारे भैय्या तो घर में नहीं है" सुनने के बाद ओमी को एक नया विचार आया क्यों ना वो महिला वोट को लेने की कोशिश करे| ओमी ने भाभी को पुरी बात बतायी, समझायी और खुद को वोट देने के गुहार लगायी| भाभी ने सीधे शब्दों में ओमी को कह दिया "सुबह तुम्हारे भैया कह रहे थे मनोज भैया को ही वोट देना है, अब हम ठहरे औरत जात, आपकी बात तो सही है लेकिन हमे तो अपने पति का ही साथ देना है, सात जनम का नाता है अब ये वोट के लिए तो ना तोड़ेंगे| अपने भैय्या से बात करलो, अगर वो कहेंगे तो हम वोट कर देंगे| "

ओमी को सबसे पढ़े लिखे होने के बावजूद अगर वोट नहीं मिल रहे थे तो फ़िर देश के चुनावो में क्या होता है यह कोई रहस्यमयी या सनसनी चीज़ तो रह नहीं गयी है | उदास हताश ओमी सायकल को घसीट कर ले जारहा था| आदमी भी अजीब होता है जब खुश होता है तो उबड़ खाबड़ रास्तो पर भी सायकल चला लेता है और जब उदास तो पक्के रास्तो पर उसे पैदल घसीट कर लेजाता है| "अरे क्या हुआ ओमी, फ़िर किसी बदमाश ने हवा निकल दी क्या" रामचरण (अपराधियों की प्रतियोगिता) ने ओमी इस तरह पैदल चलते देख कर पुछा| ओमी ने बड़ा ही असहाय सा जवाब दिया "अब तो हमारे मस्तिष्क की हवा निकल गयी है सायकल की क्या पूछ रहे हो" रामचरण ने ओमी से विस्तार में पुछा कि क्या हुआ है| ओमी के सारी बाते सुनने के बाद रामचरण को बुरा लगा, गाँव में सबसे पढ़ा लिखा होने के बावजूद उसे वोट नहीं मिल रहा| अब रामचरण ने ठान ली कि चाहे जो हो पुरे वोट ओमी को ही मिलेंगे| रामचरण ने ओमी से कहा " तुम चिंता ना करो और सायकल चला के घर जाओ, कल गाँव के सारे वोट तुम्हे ही मिलेंगे, यहाँ तक कि भजन और मनोज भी तुम्हे वोट करेंगे, हम सब देख लेंगे" ओमी को ये बात सुनने में अच्छी तो लगी लेकिन वो नहीं चाहता था कि उसके कारण रामचरण फ़िर से गुंडागर्दी करे| उसने रामचरण को कहा कि उसके लिए उन्हें किसी को डराने धमकाने कि जरुरत नहीं है, जो होना हो जायेगा| लेकिन इस पर रामचरण ने कहा"मैं तो सबसे विनती ही करूँगा लेकिन मेरा इतिहास अगर किसी को डरा दे, तो उसमे ना तो मेरी गलती है ना तुम्हारी "
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